श्री हित चौरासी जी | Shri Hit chaurasi Ji

श्री हित चौरासी जी | Shri Hit chaurasi Ji

“श्री हित चौरासी जी” एक प्रमुख धार्मिक ग्रंथ है जो भक्तिसंप्रदाय के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे संत हित हरिवंश जी ने लिखा था और इसमें भक्ति, साधना, और धर्म के महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में आत्मा की दिव्यता, ईश्वर के प्रति प्रेम, और भक्तिपथ पर चलने के मार्गदर्शन की बातें की गई हैं। 4 पदों से युक्त, रसोपासना पंथ के अनुयायियों के लिए रस महाकाव्य, श्री कृष्ण की मुरली अवतार श्री हित हरिवंश महाप्रभु के द्वारा लिखित श्री राधा कृष्ण की नित्य लीलाओं का संकलन है श्री हित चौरासी। लेखक: श्री हित हरिवंश महाप्रभु

“हित चौरासी” का मतलब होता है “हित का 84” और इसे 84 श्लोकों (अथवा चौपाइयों) में लिखा गया है। यह ग्रंथ हिंदी और अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध है और भक्तों के बीच अत्यधिक पूजनीय है।

इस ग्रंथ का अध्ययन करने से जीवन में धार्मिक और आत्मिक दृष्टिकोण से बहुत लाभ हो सकता है।

“श्री हित चौरासी जी”shri hit chaurasi गाने से कई लाभ :-

“श्री हित चौरासी जी” के गीतों या भजन को सुनने और गाने से कई लाभ हो सकते हैं, जो भक्ति और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में अनुभव किए जा सकते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख लाभ हैं:

आध्यात्मिक उन्नति: “श्री हित चौरासी” के भजन भक्ति और साधना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इन्हें सुनने या गाने से आध्यात्मिक उन्नति होती है और आत्मा की शांति मिलती है।

मन की शांति: इन भजनों का उच्चारण और श्रवण करने से मन को शांति मिलती है और मानसिक तनाव कम होता है। ये भजन मन को स्थिर और केंद्रित बनाने में मदद करते हैं।

धार्मिक समर्पण: भजन सुनने और गाने से भक्तिपथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इससे व्यक्ति का ईश्वर के प्रति समर्पण और प्रेम बढ़ता है।

सकारात्मक ऊर्जा: भजन और धार्मिक गीत सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं और वातावरण को आध्यात्मिक रूप से ऊर्जावान बनाते हैं।

समाजिक और सांस्कृतिक एकता: सामूहिक रूप से भजन गाने से समुदाय में एकता और सामंजस्य बढ़ता है। यह धार्मिक समारोहों और सभाओं में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

ध्यान और साधना: नियमित रूप से इन भजनों का अभ्यास करने से ध्यान की अवस्था में पहुंचना सरल होता है। यह साधना के अनुभव को गहरा करता है।

इस प्रकार, “श्री हित चौरासी जी” के भजन और गीत भक्ति और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण साधन साबित होते हैं।

श्री हित चौरासी जी | Shree Hit Chaurasi Ji पढ़े:-

जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे, भावे मोहि जोई सोई सोई करे प्यारे
मोको तो भावती ठौर प्यारे के नैनन में, प्यारो भयो चाहे मेरे नैनन के तारे
मेरे तन मन प्राण हु ते प्रीतम प्रिय, अपने कोटिक प्राण प्रीतम मोसो हारे
जय श्रीहित हरिवंश हंस हंसिनी सांवल गौर, कहो कौन करे जल तरंगिनी न्यारे॥1॥

प्यारे बोली भामिनी, आजु नीकी जामिनी भेंटि नवीन मेघ सौं दामिनी।
मोहन रसिक राइ री माई तासौं जु मान करै, ऐसी कौन कामिनी।
(जैे श्री) हित हरिवंश श्रवन सुनत प्यारी राधिका, रमन सौं मिली गज गामिनी ॥2॥

प्रात समै दोऊ रस लंपट, सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल।
श्रम-वारिज घन बिंदु वदन पर, भूषण अंगहिं अंग विकूल।
कछु रह्यौ तिलक सिथिल अलकावालि, वदन कमल मानौं अलि भूल।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन रँग रँगि रहे, नैंन बैंन कटि सिथिल दुकुल ॥3॥

आजु तौ जुवती तेरौ वदन आनंद भरयौ, पिय के संगम के सूचत सुख चैन।
आलस बलित बोल, सुरंग रँगे कपोल, विथकित अरुन उनींदे दोउ नैंन॥
रुचिर तिलक लेस, किरत कुसुम केस;सिर सीमंत भूषित मानौं तैं न।
करुना करि उदार राखत कछु न सार;दसन वसन लागत जब दैन॥
काहे कौं दुरत भीरु पलटे प्रीतम चीरु, बस किये स्याम सिखै सत मैंन।
गलित उरसि माल, सिथिल किंकनी जाल, (जै श्री) हित हरिवंश लता गृह सैंन ॥4॥

आजु प्रभात लता मंदिर में, सुख वरषत अति हरषि जुगल वर।
गौर स्याम अभिराम रंग भरे, लटकि लटकि पग धरत अवनि पर ।
कुच कुमकुम रंजित मालावलि, सुरत नाथ श्रीस्याम धाम धर ।
प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत, विचित्र चतुर सिरोमनि निजु कर ।
दंपति अति मुदित कल, गान करत मन हरत परस्पर।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रंससि परायन, गायन अलि सुर देत मधुर तर ॥5॥

कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलन लाल चोर है रैंन।
दुरवत क्योंअब दूरै सुनि प्यारे, रंग में गहले चैन में नैन॥
उर नख चंद विराने पट, अटपटाे से बैन।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक राधापति प्रमथीत मैंन ॥6॥

आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किसोर नवीन किसोरी।
अति अनुपम अनुराग परसपर, सुनि अभूत भूतल पर जोरी॥
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर, नव कर्पूर पराग न थोरी।
कौंमल किसलय सैंन सुपेसल, तापर स्याम निवेसित गोरी॥
मिथुन हास परिहास परायन, पीक कपोल कमल पर झोरी।
गौर स्याम भुज कलह मनोहर, नीवी बंधन मोचत डोरी॥
हरि उर मुकुर बिलोकि अपनपी, विभ्रम विकल मान जुत भोरी।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रवोधत, पिय प्रतिबिंब जनाइ निहोरी॥
‘नेति नेति’ बचनामृत सुनि सुनि, ललितादिक देखतिं दुरि चोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश करत कर धूनन, प्रनय कोप मालावलि तोरी ॥7॥

अति ही अरुन तेरे नयन नलिन री।
आलस जुत इतरात रंगमगे, भये निशि जागर मषिन मलिन री॥
सिथिल पलक में उठति गोलक गति, बिंध्यौ मोंहन मृग सकत चलि न री।
(जै श्री)हित हरिवंश हंस कल गामिनि,संभ्रम देत भ्रमरनि अलिन री ॥8॥

बनी श्रीराधा मोहन की जोरी।
इंद्र नील मनि स्याम मनोहर, सात कुंभ तनु गोरी॥
भाल बिसाल तिलक हरि, कामिनी चिकुर चन्द्र बिच रोरी।
गज नाइक प्रभु चाल, गयंदनी – गति बृषभानु किसोरी॥
नील निचोल जुवती, मोहन पट – पीत अरुन सिर खोरी।
( जै श्री ) हित हरिवंश रसिक राधा पति, सूरत रंग में बोरी ॥9॥

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आजु नागरी किसोर, भाँवती विचित्र जोर,
कहा कहौं अंग अंग परम माधुरी।
करत केलि कंठ मेलि बाहु दंड गंड – गंड,
परस, सरस रास लास मंडली जुरी॥
स्याम – सुंदरी विहार, बाँसुरी मृदंग तार,
मधुर घोष नूपुरादि किंकिनी चुरी।
(जै श्री)देखत हरिवंश आलि, निर्तनी सुघंग चलि,
वारी फेरी देत प्राँन देह सौं दुरी ॥10॥

मंजुल कल कुंज देस, राधा हरि विसद वेस, राका नभ कुमुद – बंधु, सरद जामिनी।
सांँवल दुति कनक अंग, विहरत मिलि एक संग ;नीरद मनी नील मध्य, लसत दामिनी॥
अरुन पीत नव दुकुल, अनुपम अनुराग मूल ; सौरभ जुत सीत अनिल, मंद गामिनी।
किसलय दल रचित सैन, बोलत पिय चाटु बैंन ; मान सहित प्रति पद, प्रतिकूल कामिनी॥
मोहन मन मथत मार, परसत कुच नीवी हार ; येपथ जुत नेति – नेति, बदति भामिनी।
“नरवाहन” प्रभु सुकेलि, वहु विधि भर, भरत झेलि, सौरत रस रूप नदी जगत पावनी ॥11॥

चलहि राधिके सुजान, तेरे हित सुख निधान ; रास रच्यौ स्याम तट कलिंद नंदिनी।
निर्तत जुवती समूह, राग रंग अति कुतूह ; बाजत रस मूल मुरलिका अनन्दिन॥
बंसीवट निकट जहाँ, परम रमनि भूमि तहाँ ; सकल सुखद मलय बहै वायु मंदिनी।
जाती ईषद बिकास, कानन अतिसै सुवास ; राका निसि सरद मास, विमल चंदिनि॥
नरवाहन प्रभु निहारी, लोचन भरि घोष नारि, नख सिख सौंदर्य काम दुख निकंदिनी।
विलसहि भुज ग्रीव मेलि भामिनि सुख सिंधु झेलि ; नव निकुंज स्याम केलि जगत बंदिनी ॥12॥

नंद के लाल हरयौं मन मोर।
हौं अपने मोतिनु लर पोवति, काँकरी डारि गयो सखि भोर॥
बंक बिलोकनि चाल छबीली, रसिक सिरोमनि नंद किसोर।
कहि कैसें मन रहत श्रवन सुनि, सरस मधुर मुरली की घोर॥
इंदु गोबिंद वदन के कारन, चितवन कौं भये नैंन चकोर।
(जै श्री )हित हरिवंश रसिक रस जुवती तू लै मिलि सखि प्राण अँकोर ॥13॥

पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण महाराज के बारे में जाने click here-> premanand ji maharaj

अधर अरुन तेरे कैसे कैं दुराऊँ ?
रवि ससि संक भजन किये अपबस, अदभुत रंगनि कुसुम बनाऊँ॥
सुभ कौसेय कसिव कौस्तुभ मनि, पंकज सुतनि लेे अंगनि लुपाऊँ।
हरषित इंदु तजत जैसे जलधर, सो भ्रम ढूँढि कहाँ हों पाऊँ॥
अंबु न दंभ कछू नहीं व्यापत, हिमकर तपे ताहि कैसे कैं बुझाऊँ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक नवरँग पिय भृकुटि भौंह तेरे खंजन लराऊँ ॥14॥

अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी,औंगी मौंगी रहति गरब की मात।
हों तोसों कहत हारी सुनी री राधिका प्यारी निसि कौ रंग क्यों न कहति लजाती॥
गलित कुसुम बैंनी सुनी री सारँग नैंनी, छूटी लट, अचरा वदति, अरसाती।
अधर निरंग रँग रच्यौ री कपोलनि, जुवति चलति गज गति अरुझाती॥
रहसि रमी छबीले रसन बसन ढीले, सिथिल कसनि कंचुकी उर राती॥
सखी सौं सुनी श्रावन बचन मुदित मन, चलि हरिवंश भवन मुसिकाती ॥15॥

आज मेरे कहैं चलौ मृगनैंनी।
गावत सरस जुबति मंडल में, पिय सौं मिलैं पिक बैंन॥
परम प्रवीन कोक विद्या में, अभिनय निपुन लाग गति लैंनी।
रूप रासि सुनी नवल किसोरी, पलु पलु घटति चाँदनी रैंनी॥
(जै श्री ) हित हरिवंश चली अति आतुर, राधा रमण सुरत सुख दैंनी।
रहसि रभसि आलिंगन चुंबन, मदन कोटि कुल भई कुचैंनी ॥16॥

आजु देखि व्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि।
अंस अंस बाहु दै किसोर जोर रूप रासि, मनौं तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि॥
नव निकुंज भ्रमर गुंज, मंजु घोष प्रेम पुंज, गान करत मोर पिकनि अपने सुर सौं मेलि।
मदन मुदित अंग अंग, बीच बीच सुरत रंग, पलु पलु हरिवंश पिवत नैंन चषक झेलि ॥17॥

सुनि मेरो वचन छबीली राधा। तैं पायौ रस सिंधु अगाधा॥
तूँ वृषवानु गोप की बेटी। मोहनलाल रसिक हँसि भेंटी॥
जाहि विरंचि उमापति नाये। तापै तैं वन फूल बिनाये॥
जौ रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ। ताकौ तैं अधर सुधा रस चाख्यौ ॥
तेरो रूप कहत नहिं आवै। (जै श्री) हित हरिवंश कछुक जस गावै ॥18॥

खेलत रास रसिक ब्रजमंडन। जुवतिन अंस दियें भुज दंडन॥
सरद विमल नभ चंद विराजै। मधुर मधुर मुरली कल बाजै॥
अति राजत घन स्याम तमाला। कंचन वेलि बनीं ब्रज बाला॥
बाजत ताल मृदंग उपंगा। गान मथत मन कोटि अनंगा॥
भूषन बहुत विविध रँग सारी। अंग सुघंग दिखावतिं नारी॥
बरषत कुसुम मुदित सुर जोषा। सुनियत दिवि दुंदुभि कल घोषा॥
(जै श्री) हित हरिवंश मगन मन स्यामा। राधा रमन सकल सुख धामा ॥19॥

मोहनलाल के रस माती। बधू गुपति गोवति कत मोसौं, प्रथम नेह सकुचाती॥
देखी सँभार पीत पट ऊपर कहाँ चूनरी राती।
टूटी लर लटकति मोतिनु की नख विधु अंकित छाती॥
अधर बिंब खंडित, मषि मंडित गंड, चलति अरुझाती।
अरुन नैंन घुँमत आलस जुत कुसुम गलित लट पाती॥
आजु रहसि मोंहन सब लूटी विविध, आपनी थाती।
(जै श्री) हित हरिवंश वचन सुनी भामिनि भवन चली मुसकाती ॥20॥

तेरे नैंन करत दोउ चारी।
अति कुलकात समात नहीं कहुँ मिले हैं कुंज विहारी॥
विथुरी माँग कुसुम गिरि गिरि परैं, लटकि रही लट न्यारी।
उर नख रेख प्रकट देखियत हैं, कहा दुरावति प्यारी॥
परी है पीक सुभग गंडनि पर, अधर निरँग सुकुमारी।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिकनी भामिनि, आलस अँग अँग भारी ॥21॥

नैंननिं पर वारौं कोटिक खंजन।
चंचल चपल अरुन अनियारे, अग्र भाग बन्यौ अंजन॥
रुचिर मनोहर बंक बिलोकनि, सुरत समर दल गंजन।
(जै श्री)हित हरिवंश कहत न बनै छबि, सुख समुद्र मन रंजन ॥22॥

राधा प्यारी तेरे नैंन सलोल।
तौं निजु भजन कनक तन जोवन, लियौ मनोहर मोल॥
अधर निरंग अलक लट छूटी, रंजित पीक कपोल।
तूँ रस मगन भई नहिं जानत, ऊपर पीत निचोल॥
कुच जुग पर नख रेख प्रकट मानौं,संकर सिर ससि टोल।
(जै श्री) हित हरिवंश कहत कछू भामिनि, अति आलस सौं बोल ॥23॥

आजु गोपाल रास रस खेलत, पुलिन कलपतरु तीर री सजनी।
सरद विमल नभ चंद विराजत, रोचक त्रिविध समीर री सजनी॥
चंपक बकुल मालती मुकुलित, मत्त मुदित पिक कीर री सजनी।
देसी सुघंग राग रँग नीकौ, ब्रज जुवतिनु की भीर री सजनी॥
मघवा मुदित निसान बजायौ, व्रत छाँड़यौ मुनि धीर री सजन।
(जै श्री)हित हरिवंश मगन मन स्यामा, हरति मदन घन पीर री सजनी ॥24॥

आजू निकी बनी श्री राधिका नागरी
ब्रज जुवति जूथ में रूप अरु चतुरई, सील सिंगार गुन सबनितें आगरी॥
कमल दक्षिण भुजा बाम भुज अंस सखि, गाँवती सरस मिलि मधुर सुर राग री।
सकल विद्या विदित रहसि ‘हरिवंश हित’, मिलत नव कुंज वर स्याम बड़ भाग री ॥25॥

मोहनी मदन गोपाल की बाँसुर।
माधुरी श्रवन पुट सुनत सुनु राधिके, करत रतिराज के ताप कौ नासुरी॥
सरद राका रजनी विपिन वृंदा सजनि, अनिल अति मंद सीतल सहित बासु री।
परम पावन पुलिन भृंग सेवत नलिन, कल्पतरु तीर बलवीर कृत रासु री॥
सकल मंडल भलीं तुम जु हरि सौं मिलीं, बनी वर वनित उपमा कहौं कासु री।
तुम जु कंचन तनी लाल मरकत मनी, उभय कल हंस ‘हरिवंश’ बलि दासुरी ॥26॥

मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर। राजत नागरि नव कुसल किशोर॥
जूथिका जुगल रूप मञ्जरी रसाल। विथकित अलि मधु माधवी गुलाल॥
चंपक बकुल कुल विविध सरोज। केतकि मेदनि मद मुदित मनोज॥
रोचक रुचिर बहै त्रिविध समीर। मुकुलित नूत नदित पिक कीर॥
पावन पुलिन घन मंजुल निकुंज। किसलय सैन रचित सुख पुंज॥
मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग। बाजत उपंग बीना वर मुख चंग॥
मृगमद मलयज कुंकुम अबीर। बंदन अगरसत सुरँगित चीर॥
गावत सुंदरी हरी सरस धमारि। पुलकित खग मृग बहत न वारि॥
(जै श्री) हित हरिवंश हंस हंसिनी समाज। ऐसे ही करौ मिलि जुग जुग राज ॥27॥

राधे देखि वन की बात।
रितु बसंत अनंत मुकुलित कुसुम अरु फल पात॥
बैंनू धुनि नंदलाल बोली, सुनिव क्यौं अर सात।
करत कतव विलंब भामिनि वृथा औसर जात॥
लाल मरकत मनि छबीलौ तुम जु कंचन गात।
बनी (श्री) हित हरिवंश जोरी उभै गुन गन मात ॥28॥

ब्रज नव तरुनी कदंब मुकुट मनि स्यामा आजु बनी।
नख सिख लौं अंग अंग माधुरी मोहे स्याम धनी॥
यौं राजत कबरी गुंथित कच कनक कंज वदनी।
चिकुर चंद्रिकनि बीच अरध बिधु मानौं ग्रसित फनी॥
सौभग रस सिर स्त्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी।
भृकुटि काम कोदंड नैंन सर कज्जल रेख अनी॥
तरल तिलक तांटक गंड पर नासा जलज मनी।
दसन कुंद सरसाधर पल्लव प्रीतम मन समनी॥
चिबुक मध्य अति चारु सहज सखि साँवल बिंदु कनी।
प्रीतम प्रान रतन संपुट कुच कंचुकि कसिब तनी॥
भुज मृनाल वल हरत वलय जुत परस सरस श्रवनी।
स्याम सीस तरु मनौं मिडवारी रची रुचिर रवनी॥
नाभि गम्भीर मीन मोहन मन खेलत कौं हृदनी।
कृस कटि पृथु नितंब किंकिनि वृत कदलि खंभ जघनी॥
पद अंबुज जावक जुत भूषन प्रीतम उर अवनी।
नव नव भाइ विलोभि भाम इभ विहरत वर कारिनी॥
(जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसिता स्यामा कीरति विसद घनी।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विस्व दुरित दवनी ॥29॥

देखत नव निकुंज सुनु सजनी लागत है अति चारु।
माधविका केतकी लता ले रच्यौ मदन आंगारु॥
सरद मास राका निसि सीतल मंद सुगंध समीर।
परिमल लुब्ध मधुव्रत विथकित नदित कोकिला कीर॥
वहु विध रङ्ग मृदुल किसलय दल निर्मित पिय सखि सेज।
भाजन कनक विविध मधु पूरित धरे धरनी पर हेज॥
तापर कुसल किसोर किसोरी करत हास परिहास।
प्रीतम पानि उरज वर परसत प्रिया दुरावति वास॥
कामिनि कुटिल भृकुटि अवलोकत दिन प्रतिपद प्रतिकूल।
आतुर अति अनुराग विवस हरि धाइ धरत भुज मूल॥
नगर नीवी बन्धन मोचत एंचत नील निचोल।
बधू कपट हठ कोपि कहत कल नेति नेति मधु बोल॥
परिरंभन विपरित रति वितरत सरस सुरत निजु केलि।
इंद्रनील मनिनय तरु मानौं लसन कनक की बेल॥
रति रन मिथुन ललाट पटल पर श्रम जल सीकर संग।
ललितादिक अंचल झकझोरति मन अनुराग अभंग॥
(जै श्री) हित हरिवंश जथामति बरनत कृष्ण रसामृत सार।
श्रवन सुनत प्रापक रति राधा पद अंबुज सुकुमार ॥30॥

आजु अति राजत दम्पति भोर।
सुरत रंग के रस में भीनें नागरि नवल किशोर॥
अंसनि पर भुज दियें विलोकत इंदु वदन विवि ओर।
करत पान रस मत्त परसपर लोचन तृषित चकोर॥
छूटी लटनि लाल मन करष्यौ ये याके चित चोर।
परिरंभन चुंबन मिलि गावत सुर मंदर कल घोर॥
पग डगमगत चलत बन विहरन रुचिर कुंज घन खोर।
(जै श्री) हित हरिवंश लाल ललना मिलि हियौ सिरावत मोर ॥31॥

आजु बन क्रीडत स्यामा स्याम॥
सुभग बनी निसि सरद चाँदनी, रुचिर कुंज अभिराम॥
खंडत अधर करत पारिरंभन, ऐचत जघन दुकूल।
उर नख पात तिरीछी चितवन, दंपति रस सम तूल॥
वे भुज पीन पयोधर परसत, वाम दृशा पिय हार।
वसननि पीक अलक आकरषत, समर श्रमित सत मार॥
पलु पलु प्रवल चौंप रस लंपट, अति सुंदर सुकुमार।
(जै श्री) हित हरिवंश आजु तृन टूटत हौं बलि विसद विहार ॥32॥

आजु बन राजत जुगल किसोर।
नंद नँदन वृषभानु नंदिनी उठे उनीदें भोर॥
डगमगात पग परत सिथिल गति परसत नख ससि छोर।
दसन बसन खंडित मषि मंडित गंड तिलक कछु थोर॥
दुरत न कच करजनि के रोकें अरुन नैन अलि चोर।
(जै श्री) हित हरिवंश सँभार न तन मन सुरत समुद्र झकोर ॥33॥

बन की कुंजनि कुंजनि डोलनि।
निकसत निपट साँकरी बीथिनु, परसत नाँहि निचोलनि॥
प्रात काल रजनी सब जागे, सूचत सुख दृग लोलनि।
आलसवंत अरुन अति व्याकुल, कछु उपजत गति गोलनि॥
निर्तनि भृकुटि वदन अंबुज मृदु, सरस हास मधु बोलनि।
अति आसक्त लाल अलि लंपट, बस कीने बिनु मोलनि॥
विलुलित सिथिल श्याम छूटी लट, राजत रुचिर कपोलनि।
रति विपरित चुंबन परिरंभन, चिबुक चारु टक टोलनि॥
कबहुँ श्रमित किसलय सिज्या पर, मुख अंचल झकझोलनि।
दिन हरिवंश दासि हिय सींचत, वारिधि केलि कलोलनि ॥34॥

झूलत दोऊ नवल किसोर।
रजनी जनित रंग सुख सुचत अंग अंग उठि भोर॥
अति अनुराग भरे मिलि गावत सुर मंदर कल घोर।
बीच बीच प्रीतम चित चोरति प्रिया नैंन की कोर॥
अबला अति सुकुमारि डरत मन वर हिंडोर झँकोर।
पुलकि पुलकि प्रीतम उर लागति दे नव उरज अँकोर॥
अरुझी विमल माल कंकन सौं कुंडल सौं कच डोर।
वेपथ जुत क्यों बनै विवेचत आनँद बढ़यौ न थोर॥
निरखि निरखि फूलतीं ललितादिक विवि मुख चंद चकोर।
दे असीस हरिवंश प्रसंसत करि अंचल की छोर ॥35॥

आजु बन नीकौ रास बनायौ।
पुलिन पवित्र सुभग जमुना तट मोहन बैंनु बजायौ॥
कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि खग मृग सचु पायौ।
जुवतिनु मंडल मध्य स्याम घन सारँग राग जमायौ॥
ताल मृदङ्ग उपंग मुरज डफ मिलि रससिंधु बढ़ायौ।
विविध विशद वृषभानु नंदिनी अंग सुघंग दिखायौ॥
अभिनय निपुन लटकि लट लोचन भृकुटि अनंग नचायौ।
ताता थेई ताथेई धरत नौतन गति पति ब्रजराज रिझायौ॥
सकल उदार नृपति चूड़ामनि सुख वारिद वरषायौ।
परिरंभन चुंबन आलिंगन उचित जुवति जन पायौ॥
वरसत कुसुम मुदित नभ नाइक इन्द्र निसान बजायौ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक राधा पति जस वितान जग छायौ ॥36॥

चलहि किन मानिनि कुंज कुटीर।
तो बिनु कुँवरि कोटि बनिता जुत, मथत मदन की पीर॥
गदगद सुर विरहाकुल पुलकित, स्रवत विलोचन नीर।
क्वासि क्वासि वृषभानु नंदिनी, विलपत विपिन अधीर॥
बंसी विसिख, व्याल मालावलि, पंचानन पिक कीर।
मलयज गरल, हुतासन मारुत, साखा मृग रिपु चीर॥
(जै श्री) हित हरिवंश परम कोमल चित, चपल चली पिय तीर।
सुनि भयभीत बज को पंजर, सुरत सूर रन वीर ॥37॥

चलहि उठि गहरु करति कत, निकुंज बुलावत लाल।
हा राधा राधिका पुकारत, निरखि मदन गज ढाल॥
करत सहाइ सरद ससि मारुत, फुटि मिली उर माल।
दुर्गम तकत समर अति कातर, करहि न पिय प्रतिपाल॥
(जै श्री) हित हरिवंश चली अति आतुर, श्रवन सुनत तेहि काल।
लै राखे गिरि कुच बिच सुंदर, सुरत – सूर ब्रज बाल ॥38॥

खेल्यो लाल चाहत रवन।
रचि रचि अपने हाथ सँवारयौ निकुंज भवन॥
रजनी सरद मंद सौरभ सौं सीतल पवन।
तो बिनु कुँवरि काम की बेदन मेटब कवन॥
चलहि न चपल बाल मृगनैनी तजिब मवन।
(जै श्री) हित हरिवंश मिलब प्यारे की आरति दवन ॥39॥

बैठे लाल निकुंज भवन।
रजनी रुचिर मल्लिका मुकुलित त्रिविध पवन॥
तूँ सखी काम केलि मन मोहन मदन दवन।
वृथा गहरु कत करति कृसोदरी कारन कवन॥
चपल चली तन की सुधि बिसरी सुनत श्रवन।
(जै श्री) हित हरिवंश मिले रस लंपट राधिका रवन ॥40॥

प्रीति की रीति रंगिलोइ जान।
जद्यपि सकल लोक चूड़ामनि दीन अपनपौ मानै॥
जमुना पुलिन निकुंज भवन में मान मानिनी ठानै।
निकट नवीन कोटि कामिनि कुल धीरज मनहिं न आनै॥
नस्वर नेह चपल मधुकर ज्यों आँन आँन सौं बानै।
(जै श्री) हित हरिवंश चतुर सोई लालहिं छाड़ि मैंड पहिचानै ॥41॥

प्रीति न काहु की कानि बिचारै।
मारग अपमारग विथकित मन को अनुसरत निवारै॥
ज्यौं सरिता साँवन जल उमगत सनमुख सिंधु सिधारै।
ज्यौं नादहि मन दियें कुरंगनि प्रगट पारधी मारै॥
(जै श्री) हित हरिवंश हिलग सारँग ज्यौं सलभ सरीरहि जारै।
नाइक निपून नवल मोहन बिनु कौन अपनपौ हारै ॥42॥

अति नागरि वृषभानु किसोरी।
सुनि दूतिका चपल मृगनैनी, आकरषत चितवन चित गोरी ॥
श्रीफल उरज कंचन सी देही, कटि केहरि गुन सिंधु झकोरी।
बैंनी भुजंग चन्द्र सत वदनी, कदलि जंघ जलचर गति चोरी ॥
सुनि ‘हरिवंश’ आजु रजनी मुख, बन मिलाइ मेरी निज जोरी।
जद्यपि मान समेत भामिनी, सुनि कत रहत भली जिय भोरी ॥43॥

चलि सुंदरि बोली वृंदावन।
कामिनि कंठ लागि किन राजहि, तूँ दामिनि मोहन नौतन घन॥
कंचुकी सुरंग विविध रँग सारी, नख जुग ऊन बने तरे तन॥
ये सब उचित नवल मोहन कौं, श्रीफल कुच जोवन आगम धन॥
अतिसै प्रीति हुती अंतरगत, (जैश्री) हित हरिवंश चली मुकुलित मन।
निविड़ निकुंज मिले रस सागर, जीते सत रति राज सुरत रन ॥44॥

आवति श्रीवृषभानु दुलार।
रूप रासि अति चतुर सिरोमनि अंग अंग सुकुमारी॥
प्रथम उबटि मज्जन करि सज्जित नील बरन तन सारी।
गुंथित अलक तिलक कृत सुंदर सैंदूर माँग सँवारी॥
मृगज समान नैंन अंजन जुत रुचिर रेख अनुसारी।
जटित लवंग ललित नासा पर दसनावलि कृत कार॥
श्रीफल उरज कँसूभी कंचुकि कसि ऊपर हार छबि न्यारी।
कृस कटि उदर गँभीर नाभि पुट जघन नितंबनि भारी॥
मनौं मृनाल भूषन भूषित भुज स्याम अंस पर डारी।
(जै श्री) हित हरिवंश जुगल करिनी गज विहरत वन पिय प्यारी ॥45॥

विपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रूचि,
स्याम स्यामा मिले सरद की जमिनी।
हृदै अति फूल समतूल पिय नागरी,
करिनि करि मत्त मनौं विवध गुन रामिनी॥
सरस गति हास परिहास आवेस बस,
दलित दल मदन बल कोक रस कामिनी।
(जै श्री) हित हरिवंश सुनि लाल लावन्य भिदे,
प्रिया अति सूर सुख सुरत संग्रामिनी ॥46॥

वन की लीला लालहिं भावै।
पत्र प्रसून बीच प्रतिबिंबहिं नख सिख प्रिया जनावै॥
सकुच न सकत प्रकट परिरंभन अलि लंपट दुरि धावै।
संभ्रम देति कुलकि कल कामिनि रति रन कलह मचावै॥
उलटी सबै समझि नैंननि में अंजन रेख बनावै।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रीति रीति बस सजनी स्याम कहावै ॥47॥

बनी वृषभानु नंदिनी आजु।
भूषन वसन विविध पहिरे तन पिय मोहन हित साज॥
हाव भाव लावन्य भृकुटि लट हरति जुवति जन पाजु।
ताल भेद औघर सुर सूचत नूपुर किंकिनि बाजु॥
नव निकुंज अभिराम स्याम सँग नीकौ बन्यौ समाजु।
(जै श्री) हित हरिवंश विलास रास जुत जोरी अविचल राजु ॥48॥

देखि सखी राधा पिय केलि।
ये दोउ खोरि खरिक गिरि गहवर, विहरत कुँवर कंठ भुज मेलि॥
ये दोउ नवल किसोर रूप निधि, विटप तमाल कनक मनौ बेलि।
अधर अदन चुंबन परिरंभन, तन पुलकित आनँद रस झेलि ॥
पट बंधन कंचुकि कुच परसत, कोप कपट निरखत कर पेलि।
(जै श्री) हित हरिवंश लाल रस लंपट, धाइ धरत उर बीच सँकेलि ॥49॥

नवल नागरि नवल नागर किसोर मिलि, कुञ्ज कौंमल कमल दलनि सिज्या रची।
गौर स्यामल अंग रुचिर तापर मिले, सरस मनि नील मनौं मृदुल कंचन खची॥
सुरत नीबी निबंध हेत पिय, मानिनी – प्रिया की भुजनि में कलह मोंहन मची।
सुभग श्रीफल उरज पानि परसत, रोष – हुंकार गर्व दृग भंगि भामिनि लची॥
कोक कोटिक रभस रहसि ‘हरिवंश हित’, विविध कल माधुरी किमपि नाँहिन बची।
प्रनयमय रसिक ललितादि लोचन चषक, पिवत मकरंद सुख रासि अंतर सची ॥50॥

दान दै री नवल किसोरी।
माँगत लाल लाड़िलौ नागर, प्रगट भई दिन दिन की चोरी॥
नव नारंग कनक हीरावलि, विद्रुम सरस जलज मनि गोरी।
पूरित रस पीयूष जुगल घट, कमल कदलि खंजन की जोरी॥
तोपैं सकल सौंज दामिनि की, कत सतराति कुटिल दृग भोरी।
नूपुर रव किंकिनी पिसुन घर, ‘हित हरिवंश’ कहत नहिं थोरी ॥51॥

देखौ माई सुंदरता की सीवाँ।
व्रज नव तरुनि कदंब नागरी, निरखि करतिं अधग्रिवाँ॥
जो कोउ कोटि कोटि कलप लगि जीवै रसना कोटिक पावै।
तऊ रुचिर वदनारबिंद की सोभा कहत न आवै॥
देव लोक भूलोक रसातल सुनि कवि कुल मति डरिये।
सहज माधुरी अंग अंग की कहि कासौं पटतरिये॥
(जै श्री) हित हरिवंश प्रताप रूप गुन वय बल स्याम उजागर।
जाकी भ्रू विलास बस पसुरिव दिन विथकित रस सागर ॥52॥

देखौ माई अबला के बल रासिी।
अति गज मत्त निरकुंस मोहन ; निरखि बँधे लट पासि॥
अबहीं पंगु भई मन की गति ; बिनु उद्यम अनियासी।
तबकी कहा कहौं जब प्रिय प्रति ; चाहति भृकुटि बिलास॥
कच संजमन व्याज भुज दरसति ; मुसकनि वदन विकासी।
हा हरिवंश अनीति रीति हित ; कत डारति तन त्रास ॥53॥

नयौ नेह नव रंग नयौ रस, नवल स्याम वृषभानु किसोरी।
नव पीतांबर नवल चूनरी; नई नई बूँदनि भींजत गोरी॥
नव ‘वृंदावन हरित मनोहर नव चातक बोलत मोर मोरी।
नव मुरली जु मलार नई गति; श्रवन सुनत आये घन घोरी॥
नव भूषन नव मुकुट विराजत; नई नई उरप लेत थोरी थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश असीस देत मुख चिरजीवौ भूतल यह जोरी॥54॥

आजु दोउ दामिनि मिलि बहसीं।
विच लै स्याम घटा अति नौंतन, ताके रंग रसीं॥
एक चमकि चहुँ ओर सखी री, अपने सुभाइ लसी।
आई एक सरस गहनी में, दुहुँ भुज बीच बसी॥
अंबुज नील उमै विधु राजत, तिनकी चलन खसी।
(जै श्री) हित हरिवंश लोभ भेटन मन, पूरन सरद ससी॥55॥

हौं बलि जाऊँ नागरी स्याम।
ऐसौं ही रंग करौ निसि वासर, वृंदा विर्पिन कुटी अभिराम।।
हास विलास सुरत रस सिंचन, पसुपति दग्ध जिवावत काम।
(जै श्री) हित हरिवंश लोल लोचन अली, करहु न सफल सकल सुख धाम॥56॥

प्रथम जथामति प्रनऊँ (श्री) वृंदावन अति रम्य।
श्रीराधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम॥
वर जमुना जल सींचन दिनहीं सरद बसंत।
विविध भाँति सुमनसि के सौरभ अलिकुल मंत॥
अरुन नूत पल्लव पर कूँजत कोकिल कीर।
निर्तनि करत सिखी कुल अति आनंद अधीर॥
बहत पवन रुचि दायक सीतल मंद सुगंध।
अरुन नील सित मुकुलित जहँ तहँ पूषन बंध ।
अति कमनीय विराजत मंदिर नवल निकुंज।
सेवत सगन प्रीतिजुत दिन मीनध्वज पुंज॥
रसिक रासि जहँ खेलत स्यामा स्याम किसोर।
उभे बाहु परिरंजित उठे उनींदे भोर॥
कनक कपिस पट सोभित सुभग साँवरे अंग।
नील वसन कामिनि उर कंचुकि कसुँभी सुरंग॥
ताल रबाब मुरज उफ बाजत मधुर मृदंग।
सरस उकति गति सूचत वर बँसुरी मुख चंग॥
दोउ मिलि चाँचरि गावत गौरी राग अलापि।
मानस मृग बल वेधत भृकुटि धनुष दृग चापि॥
दोऊ कर तारिनु पटकत लटकत इत उत जात।
हो हो होरी बोलत अति आनंद कुलकात॥
रसिक लाल पर मेलति कामिनि बंधन धूरि।
पिय पिचकारिनु छिरकत तकि तकि कुंकुम पूरि॥
कबहुँ कबहुँ चंदन तरु निर्मित तरल हिंडोल।
चढ़ि दोऊ जन झूलत फूलत करत किलो॥
वर हिंडोर झँकोरनी कामिनि अधिक डरात।
पुलकि पुलकि वेपथ अँग प्रीतम उर लपटात॥
हित चिंतक निजु चेरिनु उर आनँद न समात।
निरखि निपट नैंननि सुख तृन तोरतिं वलि जात॥
अति उदार विवि सुंदर सुरत सूर सुकुमार।
(जै श्री) हित हरिवंश करौ दिन दोऊ अचल विहार॥57॥

तेरे हित लैंन आई, बन ते स्याम पठाई: हरति कामिनि घन कदन काम कौ।
काहे कौं करत बाधा, सुनि री चतुर राधा; भैंटि कैं मैंटि री माई प्रगट जगत भौं॥
देख रजनी नीकी, रचना रुचिर पी की; पुलिन नलिन नव उदित रौंहिनी धौ।
तू तौ अब सयानी; तैं मेरी एकौ न मानी; हौं तोसौं कहत हारी जुवति जुगति सौं॥
मोंहनलाल छबीलौ, अपने रंग रंगीलौ; मोहत विहंग पसु मधुर मुरली रौ।
वे तो अब गनत तन जीवन जौवन तब; (जै श्री) हित हरिवंश हरि भजहि भामिनि ज॥58॥

यह जु एक मन बहुत ठौर करि, कहु कौनें सचु पायौ।
जहँ तहँ विपति जार जुवती लौं, प्रगट पिंगला गायौ।
द्वै तुरंग पर जोरि चढ़त हठि, परत कौन पै धायौ।
कहिधौं कौन अंक पर राखै, जो गनिका सुत जाय॥
(जै श्री) हित हरिवंश प्रपंच बंच सब काल व्याल कौ खायौ।
यह जिय जानि स्याम स्यामा पद कमल संगि सिर नायौ॥59॥

कहा कहौं इन नैननि की बात।
ये अलि प्रिया वदन अंबुज रस अटके अनत न जात॥
जब जब रुकत पलक संपुट लट अति आतुर अकुलात।
लंपट लव निमेष अंतर ते अलप कलप सत सात॥
श्रुति पर कंज दृगंजन कुच बिच मृग मद हवै् न समात।
(जै श्री) हित हरिवंश नाभि सर जलचर जाँचत साँवल गात॥60॥

आजु सखी बन में जु बने प्रंभु नाचते हैं ब्रज मंडन।
वैस किसोर जुवति अंसुन पर दियैं विमल भुज दंडन॥
कोंमल कुटिल अलक सुठि सोभित अबलंबित जुग गंडन।
मानहु मधुप थकित रस लंपट नील कमल के खंडन॥
हास विलास हरत सबकौ मन काम समूह विहंडन।
|श्री) हित हरिवंश करत अपनौ जस प्रकट अखिल ब्रह्मंडन॥61॥

खेलत रास दुलहिनी दूलहु।
सुनहु न सखी सहित ललितादिक, निरखि निरखि नैंननि किन फूलह॥
अति कल मधुर महा मौंहन धुनि, उपजत हंस सुता के कूलहु।
थेई थेई वचन मिथुन मुख निसरत, सुनि सुनि देह दसा किन भुलहु॥
मृदु पद न्यास उठत कुंकुम रज, अदभूत बहत समीर दुकूलहु।
कबहुँ स्याम स्यामा दसनांचल- कच कुच हार छुवत भुज मूलह॥
अति लावन्य, रूप, अभिनय, गुन, नाहिन कोटि काम समतूलहु।
भृकुटि विलास हास रस बरषत (जै श्री) हित हरिवंश प्रेम रस झूलहु॥62॥

मोहन मदन त्रिभंगी। मोहन मुनि मन रंगी॥
मोहन मुनि सघन प्रगट परमानँद गुन गंभीर गुपाला।
सीस किरीट श्रवण मनि कुंडल उर मंडित बन माला॥
पीतांबर तन धातु विचित्रित कल किंकिनि कटि चंगी।
नख मनि तरनि चरन सरसीरूह मोहन मदन त्रिभंगी॥
मोहन बैंनु बजावै। इहिं रव नारि बुलावै॥
आईं ब्रज नारि सुनत बंसी रव गृह पति बंधु विसारे।
दरसन मदन गुपाल मनोहर मनसिज ताप निवारे॥
हरषित बदन बैंक अवलोकन सरस मधुर धुनि गाव।
मधुमय श्याम समान अधर धरे मोहन बैंनु बजावे॥
रास रचा बन माँही। विमल कलप तरु छाँहीं॥
विमल कलपतरु तीर सुपेशल सरद रैंन वर चंदा।
सीतल मंद सुगंध पवन बहै तहाँ खेलत नंद नंदा॥
अदभुत ताल मृदंग मनोहर किंकिनि शब्द कराहीं।
जमुना पुलिन रसिक रस सागर रास रच्यो बन माँहि॥
देखत मधुकर केली। मोहे खग मृग बेली॥
मोहे मृगधैंनु सहित सुर सुंदरि प्रेम मगन पट छूटे।
उडगन चकित थकित ससि मंडल कोटि मदन मन लूटे॥
अधर पान परिरंभन अति रस आनँद मगन सहेली।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक सचु पावत देखत मधुकर केली॥63॥

बैंनु माई बाजै बंसीवट।
सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट॥
जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।
दसननि कुंद कली छवि लज्जित लज्जित कनक समान पीत पट॥
मुनि मन ध्यान धरत नहिं पावत करत विनोद संग बालक भट।
दास अनन्य भजन रस कारन हित हरिवंश प्रकट लीला नट॥64॥

मूल-मदन मदन धन निकुंज खेलत हरि, राका रुचिर सरद रजनी।
यमुना पुलिन तट सुरतरु के निकट, रचित रास चलि मिलि सजन॥
वाजत मृदु मृदंग नाचत सबै सुधंग; तैं न श्रवन सुन्यौ बैंनु बजनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु राधिका रमन, मोकौं भावै माई जगत भगत भजन॥65॥

विहरत दोऊ प्रीतम कुंज।
अनुपम गौर स्याम तन सोभा वन वरषत सुख पुंज॥
अद्भुत खेत महा मनमथ कौ दुंदुभि भूषन राव।
जूझत सुभट परस्पर अँग अँग उपजत कोटिक भाव॥
भर संग्राम अमित अति अबला निद्रायत काले नैन।
पिय के अंक निसंक तंक तन आलस जुत कृत सैंन
लालन मिस आतुर पिय परसद उरु नाभि ऊरजात।
अद्भुत छटा विलोकि अवनि पर विथकित वेपथ गात॥
नागरि निरखि मदन विष व्यापित दियौ सुधाधर धीर।
सत्वर उठे महामधु पीवत मिलत मीन मिव नीर॥
अवहीं मैं मुख मध्य विलोके बिंबाधर सु रसाल।
जागृत त्यौं भ्रम भयौ परयौ मन सत मनसिज कुल जाल॥
सकृदपि मयि अधरामृत मुपनय सुंदरि सहज सनेह।
तव पद पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह॥
प्रिया कहति कहु कहाँ हुते पिय नव निकुंज वर राज।
सुंदर वचन वचन कत वितरत रति लंपट बिनु काज॥
इतनौं श्रवन सुनत मानिनि मुख अंतर रहयौ न धीर।
मति कातर विरहज दुख व्यापित बहुतर स्वास समीर॥
(जै श्री) हित हरिवंश भुजनि आकरषे लै राखे उर माँझ।
मिथुन मिलत जू कछुक सुख उपज्यौ त्रुटि लव मिव भई साँझ॥66॥

रुचिर राजत वधू कानन किसोरी।
सरस षोडस कियें, तिलक मृगमद दियें,
मृगज लोचन उबटि अंग सिर खोरी॥
गंड पंडीर मंडित चिकुर चंद्रिका,
मेदिनि कबरि गुंथित सुरंग डोरी।
श्रवण ताटंक कै. चिबुक पर बिंदु दै,
कसूँभी कंचुकी दुरै उरज फल कोरी॥
वलय कंकन दोति, नखन जावक जोति,
उदर गुन रेख पट नील कटि थोरी।
सुभग जघन स्थली क्वनित किंकिनि भली,
कोक संगीत रस सिंधु झक झोरी॥
विविध लीला रचित रहसि हरिवंश हित;
रसिक सिरमौर राधा रमन जोरी।
भृकुटि निर्जित मदन मंद सस्मित वदन,
किये रस विवस घन स्याम पिय गोरी॥67॥

रास में रसिक मोहन बने भामिनी।
सुभग पावन पुलिन सरस सौरभ नलिन,
मत्त मधुकर निकर सरद की जामिनी॥
त्रिविध रोचक पवन ताप दिनमनि दवन,
तहाँ ठाढ़े रमन संग सत कामिनी।
ताल बीना मृदंग सरस नाचत सुधंग;
एक ते एक संगीत की स्वामिनी॥
राग रागिनि जमी विपिन वरसत अमी,
अधर बिंबनि रमी मुरलि अभिरामिनी।
लाग कट्टर उरप सप्त सुर सौं सुलप
लेति सुंदर सुघर राधिका नामिनी॥
तत्त थेई थेई करत गांव नौतन धरत,
पलटि डगमग ढरति मत्त गज गामिनी।
धाइ नवरंग धरी उरसि राजत खरी;
उभय कल हंस हरिवंश घन दामिनी॥68॥

मोहिनी मोहन रंगे प्रेम सुरंग,
मंत्र मुदित कल नाचत सुधगे।
सकल कला प्रवीन कल्यान रागिनी लीन,
कहत न बनै माधुरी अंग अंगे॥
तरनि तनया तीर त्रिविध सखी समीर।
मानौं मुनी व्रत धरयौ कपोती कोकिला कीर॥
नागरि नव किशोर मिथुन मनसि चोर।
सरस गावत दोऊ मंजुल मंदर घोर॥
कंकन किंकिनि धुनि मुखर नूपुरनि सुनि।
(जै श्री) हित हरिवंश रस वरषत नव तरुनी॥69॥

आजु सँभारत नाँहिन गोरी।
फूली फिर मत्त करिनी ज्यौं सुरत समुद्र झकोरी॥
आलस वलित अरुन धूसर मषि प्रगट करत दृग चोरी।
पिय पर करुन अमी रस बरषत अधर अरुनता थोरी॥
बाँधत भृंगं उरज अंबुज पर अलकनि बंध किसोरी।
संगम किरचि किरचि कंचुकि बँध सिथिल भई कटि डोरी॥
देति असीस निरखि जुवती जन जिनकें प्रीति न थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश विपिन भूतल पर संतत अविचल जोरी॥70॥

स्याम सँग राधिका रास मंडल बनी।
बीच नंदलाल ब्रजवाल चंपक वरन,
ज्यौंव घन तडित बिच कनक मरकत मनी॥
लेति गति मान तत्त थेई हस्तक भेद,
स रे ग म प ध नि ये सप्त सुर नंदिनी।
निर्त रस पहिर पट नील प्रगटित छबी,
वदन जनु जलद में मकर की चंदिनी॥
राग रागिनि तान मान संगीत मत,
थकित राकेश नाम सरद की जामिनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु हंस कटि केहरी,
दूरि कृत मदन मद मत्त गज गामिनी॥71॥

सुंदर पुलिन सुभग सुख दाइक।
नव नव घन अनुराग परस्पर खेलत कुँवर नागरी नांइक।
सीतल हंस सुता रस बिचिनु परसि पवन सीकर मृदु वरषत।
वर मंदार कमल चंपक कुल सौरभ सरसि मिथुन मन हरषत।
सकल सुधंग विलास परावधि नाचत नवल मिले सुर गावत।
मृगज मयूर मराल भ्रमर पिक अदभुत कोटि मदन सिर नावत।
निर्मित कुसुम सैंन मधु पूरित भजन कनक निकुंज विराजत।
रजनी मुख सुख रासि परस्पर सुरत समर दोऊ दल साजत॥
विट कुल नृपति किसोरी कर धृत, बुधि बल नीबी बंधन मोचत।
‘नेति नेति’ वचनामृत बोलत प्रनय कोप प्रीतम नहिं सोचत ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक ललितादिक लता भवन रंध्रनि अवलोकत।
अनुपम सुख भर भरित विवस असु आनँद वारि कंठ दृग रोकत॥72॥

खंजन मीन मृगज मद मेंटत, कहा कहौं नैननिं की बातैं।
सनी सुंदरी कहाँ लौं सिखईं, मोहन बसीकरन की घातैं।
बंक निसंक चपल अनियारे, अरुन स्याम सित रचे कहाँ तैं।
डरत न हरत परयौ सर्वसु मृदु मधुमिव मादिक दृग पातैं॥
नैंकु प्रसन्न दृष्टि पूरन करि, नहिं मोतन चितयौ प्रमदा तैं।
(जै श्री) हित हरिवंश हंस कल गामिनि, भावै सो करहु प्रेम के नातैं॥73॥

काहे कौं मान बढ़ावतु है बालक मृग लोचनि।
हौंब डरनि कछु कहि न सकति इक बात सँकोचनी।
मत्त मुरली अंतर तव गावत जागृत सैंन तवाकृति सोचनि।
(जै श्री) हित हरिवंश महा मोहन पिय आतुर विट विरहज दुख मोचनि ॥74॥

हौं जु कहति इक बात सखी, सुनि काहे कौं डारत?
प्रानरमन सौं क्यौंऽब करत, आगस बिनु आरत।।
पिय चितवत तुव चंद वदन तन, तूँ अधमुख निजु चरन निहारति।
वे मृदु चिबुक प्रलोइ प्रबोधत, तूँ भामिनि कर सौं कर टारत॥
विबस अधीर विरह अति कतर सर औसर कछुवै न विचारति।
(जै श्री) हित हरिवंश रहसि प्रीतम मिलि, तृषित नैंन काहे न प्रतिपारति॥75॥

नागरीं निकुंज ऐंन किसलय दल रचित सैंन,
कोक कला कुसल कुँवरि अति उदार री।
सुरत रंग अंग अंग हाव भाव भृकुटि भंग,
माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।
मुखर नूपुरनि सुभाव किंकनी विचित्र राव,
विरमि विरमि नाथ वदत वर विहार री।
लाड़िली किशोर राज हंस हंसिनी समाज,
सींचत हरिवंश नैंन सुरस सार री॥76॥

लटकति फिरति जुवति रस फूली।
लता भवन में सरस सकल निसि, पिय सँग सुरत हिंडोरे झूली॥
जद्दपि अति अनुराग रसासव पान विवस नाहिंन गति भूली।
आलस वलित नैंन विगलित लट, उर पर कछुक कंचुकी खूली॥
मरगजी माल सिथिल कटि बंधन, चित्रित कज्जल पीक दुकूली।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन सर जरजर, विथकित स्याम सँजीवन मूली॥77॥

सुधंग नाचत नवल किसोरी।
थेई थेई कहति चहति प्रीतम दिसि, वदन चंद मनौं त्रिषित चकोर॥
तान बंधान मान में नागरि देखत स्याम कहत हो हो होरी।
(जै श्री) हित हरिवंश माधुरी अँग अँग, बरवस लियौ मोहन चित चोरी॥78॥

रहसि रहसि मोहन पिय के संग री, लड़ैती अति रस लटकति।
सरस सुधंग अंग में नागरि, थेई थेई कहति अवनि पद पटकति॥
कोक कला कुल जानि सिरोमनि, अभिनय कुटिल भृकुटियनि मटकति।
विवस भये प्रीतम अलि लंपट, निरखि करज नासा पुट चटकति ॥
गुन गनु रसिक राइ चूड़ामनि रिझवति पदिक हार पट झटकति।
(जै श्री) हित हरिवंश निकट दासीजन, लोचन चषक रसासव गटकति॥79॥

वल्लवी सु कनक वल्लरी तमाल स्याम संग,
लागि रही अंग अंग मनोभिरामिनी।
वदन जोति मनौं मयंक अलका तिलक छबि कलंक,
छपति स्याम अंक मनौं जलद दामिनी॥
विगत वास हेम खंभ मनौं भुवंग वैनी दंड,
पिय के कंठ प्रेम पुंज कुंज कामिनी।
(जै श्री) सोभित हरिवंश नाथ साथ सुरत आलस वंत,
उरज कनक कलस राधिका सुनामिनी॥80॥

वृषभानु नंदिनी मधुर कल गावै।
विकट औंघर तान चर्चरी ताल सौं, नंदनंदन मनसि मोद उपजावै॥
प्रथम मज्जन चारु चीर कज्जल तिलक, श्रवण कुंडल वदन चंदनि लजावै।
सुभग नकबेसरी रतन हाटक जरी, अधर बंधूक दसन कुंद चमकाव॥
वलय कंकन चारु उरसि राजत हारु, कटिव किंकिनी चरन नूपुर बजावै।
हंस कल गामिनी मथति मद कामिनी, नखनि मदयंतिका रंग रुचि द्यावे ॥
निर्त्त सागर रभसि रहसि नागरि नवल, चंद चाली विविध भेदनि जनावै।
कोक विद्या विदित भाइ अभिनय निपुन, भू विलासनि मकर केतनि नचावै॥
निविड़ कानन भवन बाहु रंजित रवन, सरस आलाप सुख पुंज बरसावै।
उभै संगम सिंधु सुरत पूषन बधु, द्रवत मकरंद हरिवंश अली पावै॥81॥

नागरता की राशि किसोरी।
नव नागर कुल मौलि साँवरी, वर बस कियो चितै मुख मोरी॥
रूप रुचिर अंग अंग माधुरी, विनु भूषन भूषित ब्रज गोरी।
छिन छिन कुसल सुधंग अंग में, कोक रमस रस सिंधु झकोरी।
चंचल रसिक मधुप मौंहन मन. राखे कनक कमल कुच कोरी।
प्रीतम नैंन जुगल खंजन खग, बाँधे विविध निबंध डोरी।
अवनी उदर नाभि सरसी में, मनौं कछुक मदिक मधु घोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश पिवत सुंदर वर, सींव सुदृढ़ निगमनि की तोरी॥82॥

छाँड़िदैं मानिनी मान मन धरिबौ।
प्रनत सुंदर सुघर प्रानवल्लभ नवल,
वचन आधीन सौं इतौ कत करिबौं॥
जपत हरि विवस तव नाम प्रतिपद विमल,
मनसि तव ध्यान ते निमिष नहिं टरिबौ।
घटति पलु पलु सुभग सरद की जामीनी,
भामिनी सरस अनुराग दिसि ढरिबौ॥
हौं जु कहति निजु बात सुनो मनि सखि,
सुमुखि बिनु काज घन विरह दुख भरी वै।
मिलत हरिवंश हित’ कुंज किसलय सयन,
करत कल केलि सुख सिंधु में तिरिबौ॥83॥

आजुब देखियत है हो प्यारी रंग भरी।
मोपै न दुरति चोरी वृषभानु की किशोरी;
सिथिल कटि की डोरी,नंद के लालन सौं सुरत लरी॥
मोतियन लर टूटी चिकुर चंद्रिका छूटी
रहसि रसिक लूटी गंडनि पीक परी।
नैननि आलस बस अधर बिंब निरस;
पुलक प्रेम परस हित हरिवंश री राजत खर॥84॥

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