प्रेम — एक शब्द, एक भावना, एक ऊर्जा जो न केवल मानव हृदय को, बल्कि समूची सृष्टि को जोड़ती है। भारतीय संस्कृति में प्रेम को केवल एक निजी भावना नहीं, बल्कि परमात्मा से जुड़ाव का माध्यम माना गया है। यह वह शक्ति है जो भक्ति में, सेवा में, करुणा में, और समर्पण में प्रकट होती है।
परंतु आज की तेज़ रफ्तार, तकनीक-प्रधान दुनिया में प्रेम का वास्तविक स्वरूप खोता जा रहा है।
प्रेम में जितना विरह बढ़ता जाता है उतना ही प्रेमियों के मध्य स्थूल घटता जाता है और जैसे-जैसे स्थूल का वर्चस्व सिमटता है, सूक्ष्म विस्तार लेता है और गहराता है प्रेम…
प्रेम क्या है?
“प्रेम” – यह केवल एक शब्द नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा है। प्रेम वह दिव्य शक्ति है जो हमें जोड़ती है, संजोती है, और हमारे अस्तित्व को अर्थ देती है। प्रेम में भक्ति है, करुणा है, सेवा है, और आत्मा की शुद्ध अभिव्यक्ति है।
प्रेम के प्रकार – भारतीय दृष्टिकोण से
भारतीय संस्कृति में प्रेम के कई रूप माने गए हैं:
1. सात्विक प्रेम (निर्मल प्रेम)
यह आत्मिक प्रेम होता है – जैसे मीरा का कृष्ण से प्रेम या हनुमान का श्रीराम से प्रेम।
इसमें कोई स्वार्थ नहीं होता, केवल समर्पण होता है।
2. भौतिक प्रेम
यह सांसारिक प्रेम है – माता-पिता का संतान से, जीवनसाथियों के बीच प्रेम।
इसमें दायित्व, सुरक्षा, स्नेह और अपनापन प्रमुख होता है।
3. भक्ति प्रेम
ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम।
राधा-कृष्ण का प्रेम भक्ति का श्रेष्ठतम उदाहरण है। यह प्रेम भौतिक सीमाओं से परे है।
4. कर्तव्य रूपी प्रेम
समाज, देश और संस्कृति के प्रति प्रेम जो सेवा, त्याग और समर्पण के रूप में प्रकट होता है।
भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे महापुरुषों का राष्ट्रप्रेम इसका उदाहरण हैं।
सनातन परंपरा में प्रेम का स्थान
वेदों में प्रेम
वेदों में प्रेम को “ऋत” यानी ब्रह्मांड के प्राकृतिक नियमों से जोड़ा गया है। “प्रेम ही सृजन की नींव है”, ऐसा कहा गया है।
उपनिषदों में प्रेम
“आत्मवत् सर्वभूतेषु” — हर जीव में आत्मा को पहचानना, यही सच्चा प्रेम है।
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रेम
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“जो भक्त मुझसे प्रेम करता है, मैं उसे अपना मानता हूं।” (भगवद्गीता 9.29)
आधुनिक जीवन में प्रेम का महत्व
आज की भागदौड़ भरी दुनिया में प्रेम केवल रोमांटिक भावना तक सीमित होता जा रहा है। लेकिन भारतीय संस्कृति हमें सिखाती है कि प्रेम:
केवल आकर्षण नहीं, आत्मा की पहचान है।
केवल लेना नहीं, देना भी है।
केवल साथ रहना नहीं, सच्चा समझना भी है।
प्रेम और आध्यात्म – गहरा संबंध
प्रेम ही आत्मा का स्वरूप है। जब हम प्रेम करते हैं, हम अपनी आत्मा के निकट होते हैं। इसीलिए संत और गुरु प्रेम को सबसे बड़ा साधन मानते हैं।
संत कबीर कहते हैं:
“प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रुचे, शीष दै ले जाय।।”
आधुनिक युग में प्रेम: एक खोता हुआ अर्थ:-
आज प्रेम को एक “इंस्टेंट कनेक्शन”, “डेटिंग ऐप”, “टेक्स्ट रिप्लाई” और “रील” तक सीमित कर दिया गया है। प्रेम अब एक बटन पर क्लिक करने वाला अनुभव बन गया है, न कि आत्मा से आत्मा का मिलन।
प्रेम अब सब्र नहीं मांगता, वह जल्दी परिणाम चाहता है।
प्रेम अब त्याग नहीं करता, वह सुविधा ढूंढता है।
प्रेम अब स्थायित्व नहीं देता, वह मनोरंजन बन गया है।
यह संक्रमण केवल संबंधों को नहीं, हमारी संस्कृति, मूल्य और आत्मा को भी प्रभावित कर रहा है।
🕉️ भारतीय संस्कृति में प्रेम क्या था?
भारतीय परंपरा में प्रेम:
श्रीराम और सीता के त्याग में था,
राधा-कृष्ण की लीला में था,
मीरा के भजन में था,
कबीर के दोहों में था,
माँ अन्नपूर्णा की सेवा में था।
प्रेम वह था जो अहंकार को नष्ट करता था, आत्मा को शुद्ध करता था और व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ता था।
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💔 आज का प्रेम: भ्रम, स्वार्थ और अस्थिरता:-
आज:
प्रेम सोशल मीडिया स्टेटस बन गया है।
रिश्तों में गहराई की जगह दिखावा है।
लोग प्रेम करना नहीं, ‘प्रूव’ करना चाहते हैं।
सहनशीलता, समर्पण और धैर्य जैसे मूल तत्व लुप्त होते जा रहे हैं।
जब प्रेम सिर्फ “मैं क्या पा सकता हूँ” पर आधारित हो जाए, तो वह वास्तव में प्रेम नहीं, स्वार्थ बन जाता है।
समाधान: प्रेम को फिर से आत्मा में जगाना होगा
हमें प्रेम को फिर से भक्ति में, सेवा में, परिवार में, और समाज के प्रति उत्तरदायित्व में जगाना होगा। हमें अपने बच्चों को सिखाना होगा कि:
प्रेम का अर्थ संपर्क नहीं, संवेदनशीलता है।
प्रेम का आधार शब्द नहीं, विश्वास है।
प्रेम अधिकार नहीं, अर्पण है।
प्रेम को पुनः जीवित करना हमारी जिम्मेदारी है:-
प्रेम धर्म है। प्रेम शक्ति है। प्रेम ही ईश्वर है।
जिस दिन हम प्रेम को फिर से पवित्र, स्थायी और आत्मिक रूप में जीने लगेंगे, उस दिन हम न केवल अपने संबंधों को, बल्कि समाज को भी एक नई दिशा देंगे।
“जहां प्रेम में अहंकार नहीं होता, वहां आत्मा शुद्ध होती है और वही भक्ति बनती है।”
“प्रेम को समझो, जीयो और बांटो — यही संस्कृति है, यही विरासत है।”
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