पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय – 6

पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय – 6

नारदजी बोले– भगवान् गोलोक में जाकर क्या करते हैं ? हे पापरहित! मुझ श्रोता के ऊपर कृपा करके कहिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले –

हे नारद! पापरहित! अधिमास को लेकर भगवान् विष्णु के गोलोक जाने पर जो घटना हुई वह हम कहते हैं, सुनो ॥ २ ॥

उस गोलोक के अन्दर मणियों के खम्भों से सुशोभित, सुन्दर पुरुषोत्तम के धाम को दूर से भगवान् विष्णु देखते हुए ॥ ३ ॥
उस धाम के तेज से बन्द हुए नेत्र वाले विष्णु धीरे-धीरे नेत्र खोलकर और अधिमास को अपने पीछे कर धीरे-धीरे धाम की ओर जाने लगे॥ ४ ॥

अधिमास के साथ भगवान् के मन्दिर के पास जाकर विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और उठकर खड़े हुए द्वारपालों से अभिनन्दित भगवान् विष्णु पुरुषोत्तम भगवान् की शोभा से आनन्दित होकर धीरे-धीरे मन्दिर में गये और भीतर जाकर शीघ्र ही श्रीपुरुषोत्तम कृष्ण को नमस्कार करते हुए ॥ ५-६ ॥
गोपियों के मण्डल के मध्य में रत्नमय सिंहासन पर बैठे हुए कृष्ण को नमस्कार कर पास में खड़े होकर विष्णु बोले ॥ ७ ॥

श्रीविष्णु बोले –

गुणों से अतीत, गोविन्द, अद्वितीय, अविनाशी, सूक्ष्म, विकार रहित, विग्रहवान, गोपों के वेष के विधायक ॥ ८ ॥

छोटी अवस्था वाले, शान्त स्वरूप, गोपियों के पति, बड़े सुन्दर, नूतन मेघ के समान श्याम, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर ॥ ९ ॥
वृन्दावन के अन्दर रासमण्डल में बैठने वाले पीतरंग के पीताम्बर से शोभित, सौम्य, भौंहों के चढ़ाने पर मस्तक में तीन रेखा पड़ने से सुन्दर आकृति वाले ॥ १० ॥
रासलीला के स्वामी, रासलीला में रहने वाले, रासलीला करने में सदा उत्सुक, दो भुजा वाले, मुरलीधर, पीतवस्त्रधारी, अच्युत ॥ ११ ॥
ऐसे भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ। इस प्रकार स्तुति करके भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार कर, पार्षदों द्वारा सत्कृत विष्णु रत्नसिंहासन पर कृष्ण की आज्ञा से बैठे ॥ १२ ॥

तब श्रीकृष्ण ने विष्णु से पूछा कि यह कौन है? कहाँ से यहाँ आया है? क्यों रोता है? इस गोलोक में तो कोई भी दुःखभागी होता नहीं है ॥ १६ ॥
इस गोलोक में रहने वाले तो सर्वदा आनन्द में मग्न रहते हैं। ये लोग तो स्वप्न में भी दुष्टवार्ता या दुःख भरा समाचार सुनते ही नहीं ॥ १७ ॥

अतः हे विष्णो! यह क्यों काँपता है और आँखों से आँसू बहाता दुःखित हमारे सम्मुख किस लिये खड़ा है? ॥ १८ ॥
सिंहासन से उठकर महाविष्णु मलमास की सम्पूर्ण दुःख-गाथा कहते हुए ॥ १९ ॥

श्रीविष्णु बोले :-

हे वृन्दावन की शोभा के नाथ! हे श्रीकृष्ण! हे मुरलीधर! इस अधिमास के दुःख को आपके सामने कहता हूँ, आप सुने ॥ २० ॥
इसके दुःखित होने के कारण ही स्वामी रहित अधिमास को लेकर मैं आपके पास आया हूँ, इसके उग्र दुःखरूप अग्नि को आप शान्त करें ॥ २१ ॥
यह अधिमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है, मलिन है, शुभकर्म में सर्वदा वर्जित है ॥ २२ ॥
स्वामी रहित मास में स्नान आदि नहीं करना चाहिये, ऐसा कहकर वनस्पति आदिकों ने इसका निरादर किया है ॥ २३ ॥
द्वादश मास, कला, क्षण, अयन, संवत्सर आदि सेश्विरों ने अपने-अपने स्वामी के गर्व से इसका अत्यन्त निरादर किया ॥ २४ ॥
तैयार हुआ, तब अन्य दयालु व्यक्तियों द्वारा प्रेरित होकर ॥ २५ ॥
हे हृषीकेश! शरण चाहने की इच्छा से हमारे पास आया और काँपते-काँपते घड़ी-घड़ी रोते-रोते अपना सब दुःखजाल इसने कहा ॥ २६ ॥
इसका यह बड़ा भारी दुःख आपके बिना टल नहीं सकता, अतः इस निराश्रय का हाथ पकड़कर आपकी शरण में लाया हूँ ॥ २७ ॥
‘दूसरों का दुःख आप सहन नहीं कर सकते हैं’ ऐसा वेद जानने वाले लोग कहते हैं। अतएव इस दुःखित को कृपा करके सुख प्रदान कीजिये ॥ २८ ॥
हे जगत्पते! ‘आपके चरणकमलों में प्राप्त प्राणी शोक का भागी नहीं होता है’ ऐसा वेद जाननेवालों का कहना कैसे मिथ्या हो सकता है? ॥ २९ ॥
मेरे ऊपर कृपा करके भी इसका दुःख दूर करना आपका कर्तव्य है क्योंकि सब काम छोड़कर इसको लेकर मैं आया हूँ मेरा आना सफल कीजिये ॥ ३० ॥

‘बारम्बार स्वामी के सामने कभी भी कोई विषय न कहना चाहिये’ ऐसी नीति के जानने वाले बड़े- बड़े पण्डित सर्वदा कहा करते हैं ॥ ३१ ॥
इस प्रकार अधिमास का सब दुःख भगवान् कृष्ण से कहकर हरि, कृष्ण के मुखकमल की ओर देखते हुए कृष्ण के पास ही हाथ जोड़ कर खड़े हो गये ॥ ३२ 

ऋषि लोग बोले –

हे सूतजी! आप दाताओं में श्रेष्ठ हैं आपकी दीर्घायु हो, जिससे हम लोग आपके मुख से भगवान् की लीला के कथारूप अमृत का पान करते रहें ॥ ३३ ॥
हे सूत! गोलोकवासी भगवान् कृष्ण ने विष्णु के प्रति फिर क्या कहा? और क्या किया? इत्यादि लोकोपकारक विष्णु-कृष्ण का संवाद सब आप हम लोगों से कहिये ॥ ३४ ॥
परम भगवद्भक्त नारद ने नारायण से क्या पूछा? हे सूत! इसको आप इस समय हम लोगों से कहिये। नारद के प्रति कहा हुआ भगवान्‌ का वचन तपस्वियों के लिये परम औषध है ॥ ३५ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तमविज्ञप्तिर्नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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