पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय– 15

पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय– 15

Adhik mas chapter-15

श्रीनारायण बोले :-

सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण हाथ जोड़कर गद्‌गद स्वर से भक्तवत्सल श्रीकृष्णदेव की स्तुति करता हुआ ॥ १ ॥

हे देव! हे देवेश! हे त्रैलोक्य को अभय देनेवाले! हे प्रभो! आपको नमस्कार है। हे सर्वेश्वर! आपको नमस्कार है, मैं आपकी शरण आया हूँ ॥ २ ॥

हे परमेशान! हे शरणागतवत्सल! मेरी रक्षा करो। हे जगत्‌ के समस्त प्राणियों से नमस्कार किये जाने वाले! हे शरण में आये हुए लोगों के भय का नाश करने वाले! आपको नमस्कार है ॥ ३ ॥

आप जय के स्वरूप हो, जय के देने वाले हो, जय के मालिक हो, जय के कारण हो, विश्वद के आधार हो, विश्वण के एक रक्षक हो, दिव्य हो, विश्वो के स्थान हो, फलों के बीज हो, फलों के आधार हो, विश्व  में स्थित हो, विश्वर के कारण के कारण हो ॥ ४ ॥

फलों के मूल हो, फलों के देनेवाले ही ॥ ५ ॥

तेजःस्वरूप हो, तेज के दाता हो, सब तेजस्वियों में श्रेष्ठ हो, कृष्ण (हृदयान्धकार के नाशक) हो, विष्णु (व्यापक) हो, वासुदेव (देवताओं के वासस्थान अथवा वसुदेव के पुत्र) हो, दीनवत्सल हो ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥

हे जगत्‌प्रभो! आपकी स्तुति करने में ब्रह्मादि देवता भी समर्थ नहीं हैं। हे जनार्दन! मैं तो अल्पबुद्धि वाला, मन्द मनुष्य हूँ किस तरह स्तुति करने में समर्थ हो सकता हूँ ॥ ७ ॥

अत्यन्त दुःखी, दीन, अपने भक्त की आप कैसे उपेक्षा (त्याग) करते हो। हे प्रभो! क्या आज संसार में वह आपकी लोकबन्धुता नष्ट हो गई? ॥ ८ ॥

बाल्मीकि ऋषि बोले – 

सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण इस प्रकार विष्णु भगवान्‌ की स्तुति कर हरि के सामने खड़ा हो गया। हरि भगवान्‌ उसके वचन सुनकर मेघ के समान गम्भीर वचन से बोले ॥ ९ ॥

श्री हरि बोले :-

हे वत्स! तुमने जो तप किया वह बहुत अच्छी तरह से किया। हे महाप्राज्ञ! हे तपोधन! क्या चाहते हो? सो मुझसे कहो ॥ १० ॥

तुम्हारे तप से प्रसन्न मैं उस वर को तुम्हारे लिये दूँगा क्योंकि आज के पहले ऐसा बड़ा भारी कर्म किसी ने भी नहीं किया है ॥ ११ ॥

सुदेवशर्म्मा बोले :-

 हे नाथ! हे दीनबन्धो! हे दयानिधे! यदि आप प्रसन्न हैं तो हे विष्णो! हे पुराण-पुरुषोत्तम! कृपा कर आप मेरे लिये सत्पुत्र दीजिये ॥ १२ ॥

हे हरे! पुत्र के बिना सूना यह गृहस्थाश्रम-धर्म मुझको प्रिय नहीं लगता। इस प्रकार हरि भगवान्‌ सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण के वचन को सुनकर बोले ॥ १३ ॥

श्रीहरि भगवान्‌ बोले:-

 हे द्विज! पुत्र को छोड़ कर बाकी जो न देने के योग्य है उनको भी तुम्हारे लिये दूँगा। क्योंकि ब्रह्मा ने तुम्हारे लिये पुत्र का सुख नहीं लिखा है ॥ १४ ॥

मैंने तुम्हारे भालदेश में होने वाले समस्त अक्षरों को देखा उसमें सात जन्म तक तुमको पुत्र का सुख नहीं है ॥ १५ ॥

इस प्रकार वज्रप्रहार के समान निष्ठु्र हरि भगवान्‌ के वचन को सुनकर जड़ के कट जाने से वृक्ष के समान वह सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण पृथिवी तल पर गिर गया ॥ १६ ॥

पति को गिरे हुए देखकर गौतमी स्त्री अत्यन्त दुःखित हुई और पुत्र की अभिलाषा से वंचित अपने स्वामी को देखती हुई रुदन करने लगी ॥ १७ ॥

बाद धौर्य का आश्रय लेकर गौतमी स्त्री गिरे हुए पति से बोली।

गौतमी बोली –

हे नाथ! उठिये, उठिये, क्या मेरे वचन का स्मरण नहीं करते हैं? ॥ १८ ॥

ब्रह्मा ने भालदेश में जो सुख-दुःख लिखा है वह मिलता है। रमानाथ क्या करेंगे? मनुष्य तो अपने किये कर्म का फल भोगता है ॥ १९ ॥

अभागे पुरुष का उद्योग, मरणासन्न पुरुष को औषध देने के समान निष्फल हो जाता है। जिसका भाग्य प्रतिकूल (उल्टा) है उसका किया हुआ सब उद्योग व्यर्थ होता है ॥ २० ॥

समस्त वेदों में यज्ञ, दान, तप, सत्य, व्रत, आदि की अपेक्षा हरि भगवान्‌ का सेवन श्रेष्ठ कहा है परन्तु उससे भी भाग्य बल श्रेष्ठ है ॥ २१ ॥

इसलिये हे भूसुर! सर्वत्र से विश्वास को हटा कर उठिये और शीघ्र दैव का ही आश्रय लीजिये। इसमें हरि का क्या॥ काम है? ॥ २२ ॥

इस प्रकार उस गौतमी के अत्यन्त शोक से युक्त वचन को सुनकर दुःख से काँपते हुए गरुड़जी विष्णु भगवान्‌ से बोले ॥ २३ ॥

गरुड़जी बोले –

हे हरे! शोकरूपी समुद्र में डूबी हुई ब्राह्मणी को उसी तरह नेत्र से गिरते हुए अश्रुधारा से व्या कुल ब्राह्मण को देखकर ॥ २४ ॥

हे दीनबन्धो ! हे दयासिन्धोश! हे भक्तों के लिये अभय को देनेवाले! हे प्रभो! भक्तों के दुःख को नहीं सहने वाले! आपकी आज वह दया कहाँ चली गई? ॥ २५ ॥

अहो! आप वेद और ब्राह्मण की रक्षा करने वाले साक्षात्‌ विष्णुि हो। इस समय आपका धर्म कहाँ गया? अपने भक्त को देने के लिये चार प्रकार की मुक्ति आपके हाथ में ही स्थित कही है ॥ २६ ॥

अहो! फिर भी वे आपके भक्त उत्तम भक्ति को छोड़कर चतुर्विध मुक्ति की इच्छा नहीं करते हैं और उनके सामने आठ सिद्धियाँ दासी के समान स्थित रहती हैं ॥ २७ ॥

आपके आराधन का माहात्म्य सब जगह सुना है। तब इस ब्राह्मण के पुत्र की वाञ्छाज पूर्ण करने में आपको क्या परिश्रम है? ॥ २८ ॥

हाथी दान करने वाले पुरुष को अंकुश दान करने में क्या परिश्रम है? अब आज से कोई भी आपके चरण-कमल की सेवा नहीं करेगा ॥ २९ ॥

जो पुरुष के भाग्य में होता है वही निश्चय रूप से प्राप्त होता है। इस बात की प्रथा आज से संसार में चल पड़ी और आपकी भक्ति रसातल को चली गई अर्थात्‌ लुप्त हो गई ॥ ३० ॥

हे नाथ! आप करने तथा न करने में स्वतंत्र हैं यह आपका सामर्थ्य सर्वत्र विख्यात है आज वह सामर्थ्य इस ब्राह्मण को पुत्र प्रदान न करने से नष्ट होता है ॥ ३१ ॥

इसलिये आप इस ब्राह्मण के लिये अवश्य  एक पुत्र प्रदान कीजिये। सुदामा ब्राह्मण ने आपकी आराधना कर उत्तम वैभव को प्राप्त किया ॥ ३२ ॥

आपकी कृपा से सान्दीपिनि गुरु ने मृत पुत्र को प्राप्त किया। इन कारणों से पुत्र की लालसा करनेवाले ये दोनों स्त्री-पुरुष आपकी शरण में आये हैं ॥ ३३ ॥

श्रीनारायण बोले :-

इस प्रकार विष्णु  भगवान्‌ अमृत के समान गरुड़ के वचन को सुनकर गरुड़जी से बोले – अयि! पक्षिवर! हे वैनतेय! इस ब्राह्मण को अभिलषित एक पुत्र शीघ्र दीजिये ॥ ३४ ॥

इस प्रकार अपने अनुकूल हरि भगवान्‌ के वचन को सुनकर गरुड़जी ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर उस पृथिवी के देवता दुःखित ब्राह्मण के लिये अनुरूप सुन्दर पुत्र को जल्दी से दे दिया ॥ ३५ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्ये दृढ़धन्वो पाख्या॥ने श्रीनारायणनारदसंवादे सुदेववरप्रदानं नाम पञ्चदशोऽध्यारयः(15) ॥ १५ ॥

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