गोपी गीत(gopi geet) क्या है? इस गीत को क्यों इतना श्रेष्ठ माना जाता है ?
श्रीमद्भागवत में दशम स्कंध में गोपी गीत आता है। ये गोपी गीत भगवान कृष्ण को साक्षात् पाने का मन्त्र है। भगवान कृष्ण को पाने के जितने भी तरीके हैं या होंगे उनमे से एक गोपी गीत है। इस गोपी गीत (gopi geet) में उन्नीस श्लोक हैं। जब भगवान शरद पूर्णिमा की रात में रास लीला का प्रारम्भ करते है तो कुछ समय बाद गोपियों को मान हो जाता है कि इस जगत में हमारा भाग्य ही सबसे श्रेष्ठ है भगवान उनके मन की बात समझकर बीच रास से अंतर्ध्यान हो जाते है,
व्यक्ति केवल दो ही जगह जा सकता है, एक है संसार और दूसरा है आध्यात्म या भगवान. जैसे ही भगवान से हटकर गोपियों का मन अपने ही भाग्य पर चला गया यहाँ भगवान बता रहे है कि जैसे ही भक्त मुझसे मन हटाता है वैसे ही मै चला जाता हूँ।
भगवान सहसा अंतर्धान हो गये:-
उन्हें न देखकर व्रजयुवतियो के हदय में विरह की ज्वाला जलने लगी – भगवान की मदोन्मत्त चाल, प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओ और श्रृंगाररस की भाव-भंगियो ने उनके चित्त को चुरा लिया था. वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयी और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं और लीलाओ का अनुकरण करने लगी. अपने प्रियतम की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन- बोलन आदि मे श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयी.
सर्वथा भूलकर ‘श्रीकृष्ण स्वरुप’ हो गयी:-
उनके शरीर में भी वही गति-मति वही भाव-भंगिमा उतर आयी, वे अपने को सर्वथा भूलकर ‘श्रीकृष्ण स्वरुप’ हो गयी. ‘मै श्रीकृष्ण ही हूँ’ इस प्रकार कहने लगी वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्ही के गुणों का गान करने लगी. मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगी. वे पेड-पौधों से उनका पता पूछने लगी – हे पीपल, बरगद! नंदनंदन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुस्कान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये है क्या तुमने उन्हें देखा है ?
एक ही स्वर में, ‘गोपी-गीत’ गाया:-
जब भगवान उन्हें कही नहीं मिले तो श्रीकृष्ण के ध्यान में डूबी गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर रमणरेती में लौट आयी और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगी.सबने एक साथ, एक ही स्वर में, ‘गोपी-गीत‘ गाया. जब सब गोपियों के मन की दशा एक जैसी ही थी, सबके भाव की एक ही दशा थी, तब उन करोड़ो गोपियों के मुँह से एक ही गीत, एक साथ निकला,इसमें आश्चर्य कैसा ? गोपी गीत में उन्नीस श्लोक है. गोपी गीत `कनक मंजरी’ छंद में है.
ये गोपी गीत बड़ा ही विलक्षण ,आलौकिक है जो नित्य इस गोपी गीत पाठ करता है भगवान श्री कृष्ण जी में उसका प्रेम होता है और उसे उनकी अनुभूति होती है. भगवान के अन्तर्धान होने का एक कारण और था भगवान गोपियों के प्रेम को जगत को दिखाना चाहते थे कि गोपियाँ मुझसे कितना प्रेम करती है.
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नीचे पूरा गोपी गीत दिया गया है। आप उस गोपी गीत का एक एक श्लोक पढ़िए और उसका मर्म जानिए। यदि आप ह्रदय से , भगवान के प्रेम में डूबकर, सब कुछ भुलाकर गोपी गीत नहीं पढ़ेंगे तो आपको कुछ भी समझ नहीं आने वाला है। इसलिए मन को भगवान के चरणों में सौंपकर गोपी गीत का पाठ कीजिये। Gopigeet,गोपी गीत, गोपी गीत अर्थ सहित gopi geet iskcon lyrics
गोप्य ऊचुः ।
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥
हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। परन्तु हे प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।) ॥ 1॥
शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥
हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।।) ॥ 2॥
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥
हे पुरुष शिरोमणि ! यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु , अजगर के रूप में खाने वाली मृत्यु अघासुर , इन्द्र की वर्षा , आंधी , बिजली, दावानल , वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार- बार हम लोगों की रक्षा की है।) ॥ 3॥
न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥
हे परम सखा ! तुम केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो,अन्तर्यामी हो । ! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो।।) ॥ 4॥
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥
हे यदुवंश शिरोमणि ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो।।) ॥ 5॥
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