
नवधा भक्ति!
भक्ति भाव भरी राह…
जीवन में सब कुछ आसान हो जाता है
जब उस परम सच से सामना हो जाता है

नवधा भक्ति :-
प्रभु राम ने माता शबरी को भक्ति की नौ प्रकार बताये है.. श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।तुलसीदास जी ने नवधा भक्ति का वर्णन इस प्रकार किया है :-

श्रवण:
ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
सबसे पहली है श्रवण भक्ति, भक्ति का प्रारंभ श्रवण से ही होता है | कानो का फल है हरि कथा, हरि नाम |
जब प्रभु राम ने पूछा मैं सीता और लक्ष्मण सहित कुछ समय के लिए कहां निवास करूं?
तब मुनिवर ने गदगद होकर उत्तर दिया: —
♥ पूछेहु मोहि कि रहौं कहं, मैं पूछत सकुचाउं।
♥ जहं न होउ तहं देउ कहि, तुम्हहिं दिखावउं ठाउं।।
प्रभु, आपने पूछा कि मैं कहां रहूं? मैं आपसे संकोच करते हुए पूछता हूं कि पहले आप वह स्थान बता दीजिए, जहां आप नहीं हैं। (आप सर्वव्यापी हैं)
श्रीराम मन ही मन हँसे[ कहीं मुनिश्रेष्ठ मेरा भेद न खोल दे ] । तब मुनिश्रेष्ठ ने ऐसे 14 स्थान बताए। उनका संबोधन प्रत्यक्ष में श्रीराम के लिए,
किंतु परोक्ष में रामभक्तों के लिए है, जो अपने स्वभाव और वृत्ति के अनुसार अपने हृदय को यहां वर्णित ऐसे भक्ति भावों से परिपूर्ण करें कि श्रीराम सहज ही उनमें वास करें। उन स्थानों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है:
वाल्मीकि जी कहते हैं:
✪ प्रथम स्थान :
♥ जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना।
♥ कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।
♥ भरहिं निरंतर होहिं न पूरे।
♥ तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।
जिन लोगों के कान समुद्र के समान हैं, अथार्त जिस प्रकार सभी नदियों का जल समुद्र में निरंतर समाता रहता है परन्तु समुद्र कभी ये नही कहता की मैं भर गया हूँ, ठीक उसी प्रकार जिनके श्रवण ( कान ) कभी आपकी कथा आपका नाम सुनते सुनते थकते नही है, जिनकी प्यास कभी खत्म नही होती आप उनके ह्रदय में वास करें। वे कभी पूरे नहीं भरते। उनके हृदय आपके निवास के लिए अच्छे स्थान हैं।

कीर्तन:
ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। कीर्तन भक्ति के आचार्य श्री नारद जी और प्रह्लाद जी है | यह सबसे उतम मानी गयी है , यदि निश्छल भाव से हरिनाम का कीर्तन किया जाए तो अल्प समय में ही प्रभु की कृपा प्राप्त होगी। नाम संकीर्तन करना ही भगवान् को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम तरीका है, यही सर्वोत्तम भजन है। जिस युग में हम रह रहे हैं, इस में तो भवसागर पार जाने का यही एक उपाय है। शास्त्र तो कहते हैं कि कलिकाल में एकमात्र हरिनाम संकीर्तन के द्वारा ही भगवान की आराधना होती है।
स्मरण:
निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। आचार्यो का कहना है यहाँ स्मरण ‘नाम’ स्मरण को ही कहा गया है | नाम जप, कीर्तन श्रवण यह सब भगवन के स्मरण का साधन है | किसी भी तरह प्रभु को याद करो, निरंतर उनसे जुड़े रहो, इसी उदेश्य से नवधा भक्ति बतलाई गयी है |
पाद सेवन:
ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना। पुर्णतः प्रभु चरणों का सहारा होना ही पादसेवन भक्ति का रूप है | यह भाव मन में रखना की हे प्रभु आप जो भी मेरे लिए करेंगे वो मेरे लिए सर्वथा उचित होगा | “तेरे फूलों से भी प्यार तेरे काँटों से भी प्यार..” मन कर्म और वचन से सच्ची शरणागति भाव पादसेवन भक्ति में बताया गया है |
अर्चन:
मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन:
भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना। जिव मात्र में प्रभु का वास मन कर उन्हें प्रणाम किया जा सकता है, मेरे गुरुदेव कहते है – अगर प्रणाम करते वक्त पात्र और अपात्र का विचार करेंगे तो सब में त्रुटियां दिखेंगी और किसी को भी किया हुआ प्रणाम अंततः प्रभु के चरणों में ही पहुंचेगा |
दास्य:
ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। दास्य भक्ति के आचार्य श्री हनुमान जी महाराज है | उनकी जेसी दास्य भक्ति, पूर्ण समर्पण और भाव किसी और में नही | स्वयं को पूर्णतः समर्पित करना “सच्चे न सही झूटे ही सही पर जेसे भी है हम तुम्हारे ही है प्रभु” हर कार्य प्रभु के लिए करना, उनको प्रसन्न करने हेतु करना, यही दास्य भक्ति है |
सख्य:
ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना। अपने कर्म का फल प्रभु को अर्पित करने से कर्म फल से मुक्ति मिल जाती है, कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है | कर्मफल तो भोगना ही पड़ता है अगर इस से मुक्त होना है तो अपने सभी कर्म प्रभु के चरणों में समर्पित कर दो |
आत्मनिवेदन:
अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।नवधा भक्ति स्वरुप :-
कर्दम ऋषि की नौ कन्या थी, उन्हें नवधा भक्ति का स्वरुप बताया गया है | नवधा भक्ति रूप में कर्दम जी ने नौ कन्याओ को स्वीकार किया तो उनके आंगन में स्वयम नारायण का कपिल( ज्ञान ) अवतार हुआ । वो नवधा भक्ति है श्रवण भक्ति, कीर्तन भक्ति, स्मरण भक्ति, पाद सेवन भक्ति , अर्चन, वंदन, सख्य, दास व आत्मनिवेदन। आप इतनी में से कोई एक भक्ति कर लो तो जीवन की नैया भवसागर पार हो जाएगी | इस कथा का सार यही है की इन नौ प्रकार की भक्ति को जीवन में उतर जीवन की सार्थकता निश्चित की जाये |श्री राधे! श्री हरिदास! जय गुरुदेव!
Virasat Admin
नवधा भक्ति बहुत प्यारी जानकारी
भाव भरी राह और एक कदम भक्ति की ओर