ये सखी संप्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय के अंतर्गत है इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास (जन्म सम० 1535 वि०) ने की थी। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं।
श्रीकृष्ण को सखी भाव से रिझाने का अर्थ है इसमें पुरुष हो या स्त्री हो खुद को कृष्णा की सखी मानकर उनकी आराधना करते है उनसे प्रेम भाव रखते है। कुछ साधु सोलह श्रृंगार करते है तो कुछ भाव से अपने सखी रुपी श्रृंगार करते है। और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी संप्रदाय के साधु विषेश रूप से भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करते हैं।
स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है। यह संप्रदाय “जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी ” के आधार पर अपना समस्त जीवन “राधा-कृष्ण सरकार” को निछावर कर देती है।
श्री स्वामी हरिदास जी के प्रेम भाव ह्रदय से समर्पण ने बात सिद्ध कर दिया. श्री स्वामी हरिदास जी(swami haridas ji) का जन्म राधा अष्टमी(Radha Ashtami) के दिन हुआ था और कहते है वो ललिता सखी के अवतार थे वही ललिता सखी जो राधा रानी कृष्णा भगवन की सखी थी. क्यूंकि उनका बचपन से ही ध्यान और ग्रंथों में रूचि अधिक थी और कृष्णा भगवान से उनका स्नेह भी अधिक था जबकि उनकी उम्र के अन्य बच्चे व्यस्त खेल रहे थे। हरिदास(swami shri haridas) युवा सांसारिक सुख से दूर रहे और ध्यान पर केंद्रित हो गए। हरीमती जी के साथ समय से ही उनकी शादी हो गयी पर वो बिलकुल ही अलग थे स्वामी हरिदास जी सांसारिक सुख से कोई मोह माया नहीं था।
और बहुत जल्द हरीमती जी समझ गयी उनका प्रेम प्रभु के प्रति बहुत है. धीरे धीरे समय बीता और वो दिन आ गया जब श्री स्वामी हरिदास जी वृन्दावन के लिए निकल पड़े
स्वामी हरिदास के उपास्य युगल राधा-कृष्ण ,नित्य-किशोर ,अनादि एकरस और एक वयस हैं। यद्यपि ये स्वयं प्रेम-रूप हैं तथापि भक्त को को प्रेम का आस्वादन कराने के लिए ये नाना प्रकार की लीलाओं का विधान करते हैं। इन लीलाओं का दर्शन एवं भावन करके जीव अखण्ड प्रेम का आस्वादन करता है।
‘कुञ्ज बिहारी बिहारिनि जू को पवित्र रस ‘~~
कहकर स्वामी जी स्पस्ट सूचित किया है कि राधा-कृष्ण का विहार अत्यधिक पवित्र है। उस विहार में प्रेम की लहरें उठती रहती हैं,जिनमें मज्जित होकर जीव आनन्द में विभोर हो जाता है। इस प्रेम की प्राप्ति उपासक विरक्त भाव से वृन्दावन-वास करते हुए भजन करने से हो सकती है। स्वामी हरिदास जी का जीवन इस साधना का मूर्त रूप कहा जा सकता है। राधा -कृष्ण की इस अद्भुत मधुर-लीला का वर्णन स्वामी हरिदास ने वन -विहार ,झूलन ,नृत्य आदि विभिन्न रूपों में किया है। इस लीला का महत्व संगीत की दृष्टि से अधिक है। नृत्य का निम्न वर्णन दृष्टव्य है :
अद्भुत गति उपजत अति नाचत , दोउ मंडल कुँवर किशोरी।
सकल सुधंग अंग अंग भरि भोरी ,
पिय नृत्यत मुसकनि मुखमोरि परिरंभन रस रोरी।। (केलिमाल :कवित्त ३४ )
रसिक भक्त होने के कारण राधा-कृष्ण की लीलाओं को ही वह अपना सर्वस्व समझते हैं और सदा यही अभिलाषा करते हैं ~~
ऐसे ही देखत रहौं जनम सुफल करि मानों।
प्यारे की भाँवती भाँवती के प्यारे जुगल किशोरै जानौं।।
छिन न टरौं पल होहुँ न इत उत रहौं एक तानों।
श्री हरिदास के स्वामी स्यामा ‘कुंज बिहारी ‘मन रानौं।।(केलिमाल :पद ३ )
स्वामी हरिदास ने केलिमाल में केवल राधा-कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। राधा-कृष्ण की भक्ति ही माधुर्य भक्ति है .
680 पृष्ठों की एक छोटी पोथी हैं, जिसमें संस्थापक से लेकर इस हस्तलेख की तिथि संवत 1825 तक के समस्त महन्तों की तथा उनके लेखों की तालिका है। सूची यह है-
स्वामी हरिदास की वंश परंपरा :-
स्वामी हरिदास की वंश परंपरा में वर्त्तमान में अभी छठी पीढ़ी पे श्रद्धेय आचार्य श्री मृदुल कृष्ण गोस्वामीजी और सातवीं पीढ़ी पे श्रद्धेय आचार्य श्री गौरव कृष्ण गोस्वामी जी है।
स्वामी हरिदास (जन्म सम० 1535 वि०) ने की थी।
श्री बांके बिहारी जी, निधिवन, राधा वल्लभ
माधुर्य भक्ति ,प्रेम भक्ति