दशनामी संप्रदाय( dashanami sampradaya ) संन्यासी हिन्दू शैव तपस्वियों का एक सम्प्रदाय है, जिसकी स्थापना आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य द्वारा की गई थी। यह एकांदी संन्यासियों या भटकने वाले त्यागी की परंपरा थी। जिन्होंने एक ही सहारा रखा। उन्होंने अद्वैत वेदांत परंपरा को अपने प्राकृतिक गुणों में स्वयं के अस्तित्व के रूप में वकालत करने का संकेत दिया शंकराचार्य ने दस नामों के समूह के तहत इस सम्प्रदाय की स्थापना की।
‘दशनामी संन्यासी’ शंकराचार्य द्वारा स्थापित 10 सम्प्रदायों (‘दशनाम’- 10 नाम) से संबंधित हैं। 10 सम्प्रदाय निम्नलिखित हैं-
दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
आज जब फोरेस्ट ईकोलोजी नष्ट हो रही है तो सर्वाधिक और सर्वोच्च ज़िम्मेदारी इसी वर्ग की बनती है आज इस वर्ग में से उन गिने-चुने लोगों को हटा दिया जाये जो वयोवृद्ध हो चुके हैं तो बाक़ी बचे लोगों में से शायद ही कोई जानता होगा कि उनकी परम्परा कितनी कठोर तप की परम्परा रही हैं। बचपन से गुरू की सेवा करते हुए वनों में घूमना और औषधीय पौधों की प्रेक्टिकल जानकारी लेना और इसके साथ-साथ सेवा भाव बनाये रखना।
कि आज की मानव सभ्यता आध्यात्मिक पतन के निम्नतम स्तर पर इसलिए है कि व्यवस्था पद्धति का प्रत्येक लेन-देन काम एवं अर्थ आधारित यानी वाणिज्य आधारित हो गया है। प्रत्येक कार्य का मिशन पक्ष समाप्त हो गया है और प्रोफेशनल पक्ष हावी हो गया है।
कहते है प्रत्येक सम्प्रदाय शंकराचार्य जी के द्वारा भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भाग में स्थापित चार मठों के साथ संबंधित हैं।ये मठ हैं-
मठों के प्रमुखों को ‘महंत‘ कहते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि ‘श्रंगेरी मठ‘ के प्रमुख को ‘जगद्गुरु‘ कहा जाता है। सिद्धांतों के बारे में महंतों से परामर्श किया जाता है और आम हिन्दू तथा उनके अनुयायी तपस्वी उन्हें सर्वाधिक सम्मान देते हैं।
‘दशनामी संन्यासी’ विशेष प्रकार के गेरुआ वस्त्र पहनते हैं और यदि प्राप्त कर सकें तो अपने कंधे पर बाघ या शेर की खाल का आसन रखते हैं। वह माथे तथा शरीर के अन्य भागों पर श्मशान की राख से तीन धारियों का तिलक लगाते हैं और गले में 108 रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। वे अपनी दाढ़ी बढ़ने देते हैं और बाल खुले रखते हैं, जो कंधों तक आते हैं या उन्हें सिर के ऊपर बांधते हैं।
कुम्भ के आयोजन में सबसे बड़ा आकर्षण दस नामी सन्यासी अखाड़ों का है। वे आदि गुरु शंकराचार्य की उस परम्परा की याद दिलाते हैं जब उन्होंने विभिन्न पन्थो में बंटे साधू समाज को संगठित किया था। कहते है तीर्थराज प्रयाग में बसी कुम्भ नगरी में धूनी रमाये बैठे दिगंबर सन्यासियों को देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वे एक सदियों पुरानी परंपरा के स्वरूप के प्रतिनिधि हैं। वो परम्परा जिसकी नींव 9वीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य ने डाली थी। वही शंकराचार्य जिन्होंने ‘जगत मिथ्या, ब्रम्ह सत्यं‘ का घोष किया था। ये वो समय था जब सनातन धर्म अलग अलग इष्ट देवो के नाम पर विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित था और एक दूसरे से शत्रुता का भाव रखता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर देवी प्रसाद दुबे के मुताबिक आदि शंकराचार्य ने अद्वैत की पुनः स्थापना की और पञ्च देवोपासना में बंटे सन्यासियों को एक किया।
नागा – अखाड़ा :-
शंकराचार्य ने इन सन्यासियों को देश भर में स्थापित चारों पीठों से जोड़ा। इन्हीं सन्यासियों का एक हिस्सा नागा हो गया। उसने आकाश को अपना वस्त्र मानकर शरीर पर भभूत मला और दिगम्बर स्वरूप में रहना शुरू कर दिया। कालांतर में सन्यासियों के अलग अलग समूह बने जिन्हें अखंड कहा गया। यही अखंड शब्द बिगड़ कर अखाड़ा बन गया।
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